सचिन बंसल/सुभाष गुप्ता
इस क्षेत्र में नहरें आने के साथ खुशहाली आई तो साथ-साथ व्यसन भी बढे। मांस और मदिरा का चलन तो अब घर-घर हो गया। मांसाहारी लोग नित नए लजीज गोश्त की तलाश में रहने लगे। गांवों के बडे किसानों की लाइसेंसी/गैर लाइसेंसी बंदूके इन जीवों का सीना छलनी करने लगी। क्षेत्र में तीतर, खरगोश वगैरह का शिकार तो धडल्ले से होता ही हैं, सम्पन्न परिवारों के लोग हरिणों को मारकर खाने में कुछ ज्यादा ही रूचि लेते हैं। बंदूक की गोली हरिण पर चलाने से परहेज तो नहीं, लेकिन जब पालतू कुत्ते ही बंदूक का काम कर दें तो गोली जाया करना शिकार के ये शौकीन पसंद नहीं करते।
ग्रामीण क्षेत्रों में अपने मालिक के लिए हरिण को मार देने का काम कुत्ते बखूबी कर देते हैं और किसी के ऊपर शिकार का आरोप भी आमद नहीं होता। गत दिवस एक गांव में एक हरिण का शिकार इसी तरीके से किया गया। वन विभाग को इस बारे में पूरी जानकारी हैं, लेकिन वह कुछ नहीं कर पा रहा।
वन्य जीवों के शिकार की ताजा घटनाओं को देखे तो गत दिवस ही जिले के भिरानी थाना क्षेत्र में हरिण का, आठ एसपीडी में खरगोश का शिकार हुआ। इसके अलावा बीते वर्ष की बात करें तो सरदारपुर खालसा में एक साथ पांच मोरों का शिकार किया गया। इसके अलावा हरिण, खरगोश, नीलगाय के शिकार कई मामले थे। इन मामलों में ये वन्य जीव शिकारियों के हाथों मौत का शिकार हो गये, लेकिन बिश्ा*ोई समाज के लोगों की जागरूकता के कारण शिकारी इन वन्य जीवों को अपना निवाला नहीं बना सके तथा उनके खिलाफ मुकदमें भी दर्ज करवाए गए।
हनुमानगढ जिले में विभिन्न स्थानों पर गीदड, नीलगाय, सुअर, खरगोश, हरिण आदि वन्य जीव सैंकडों की तादाद में हैं। पक्षियों में मोर, तीतर, सैह, बगुला व बतख वगैरह पाए जाते हैं। इसके अलावा सांप और नेवले, गोह का शिकार करने से भी नहीं चुकते। संरक्षित क्षेत्र के अभाव में ये सभी पशु-पक्षी खुले खेतों में विचरण करते हैं और शिकारियों केहाथों शिकार हो रहे हैं। हनुमानगढ जिले में कैंचियां, लखासर, हरदयालपुरा, लिखमीसर, बिलौचावाली, गोलूवाला, जाखडांवाली, लुढाणा, रावतसर चोहिलांवाली, मैनावाली, गिलवाला, किशनपुरा उत्तरादा आदि स्थानों पर ये वन्य जीव पाए जाते हैं। हरिणों कें अलावा सबसे अधिक मौत की तलवार खरगोश और तीतरों पर लटकी रहती हैं। सैंकडों तीतर और खरगोशों को तकरीबन रोज मारकर निवाला बना लिया जाता हैं। खरगोश को एक विशेष प्रकार के लोहे के शिकंजे में फांसा जाता हैं। खेतों और झाडियों के इर्द-गिर्द ये शिकजें डाल दिए जाते हैं। रात के अंधेरे में जैसे ही खरगोश बिलों से बाहर निकलते हैं, इन शिकजों में उनकी टांगे फंसकर टूट जाती हैं। सुबह शिकारी उन्हें पकडकर मौत के घाट उतार देते हैं। शिकारी इन जीवों को पकडने के लिए करका, टोपीदार बंदूक, जहरीला दाना, गुलेल के अलावा शिकारी कुत्तों का इस्तेमाल करते हैं।
क्षेत्र में तीतर का शिकार भी बहुतायत से होता हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में कुछ जाति विशेष के लोग रोजाना बडी तादाद में तीतरों का शिकार करते हैं। वन विभाग के मापदंडों के अनुरूप वन्य जीवों की गणना जिस प्रकार वन्य प्राणियों के लिए संरक्षित क्षेत्रों में होती हैं, उस तरह से इस क्षेत्र में इन निरीह प्राणीयों की गणना भी वन विभाग उजागर नहीं करता। कभी हनुमानगढ में सियार, नीलगाय, चिंकारा, जंगली सुअर, लोमडी, बंद तथा हरिण काफी संख्या में पाए जाते थे, लेकिन बढते शिकार के कारण आज इनमें से कई तो लुप्तप्रायः हो गये हैं तथा कुछ होने को हैं।
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